लहराती नदियों-सी होकर भी गहरी।
बातें तुम्हारी प्रिये क्यों ठहरी-ठहरी।
मैं तो एक झरना हूँ, थम जाऊँ कैसे?
छाती पे पत्थर की जम जाऊँ कैसे?
मीन-सी तड़प रही है मेरी प्रतीक्षा में
देखो तुम्हारी प्रिये एक-एक लहरी।
मैं तो एक बादल हूँ, बाँहों में भर लो।
काजल समान प्रिये आँखों में धर लो।
ख़त्म नहीं होऊँगा किंतु तेरे अंबर से
बार-बार बरसूँगा संझा-दुपहरी।
मन पे उदासी न छाने दो इक पल
आज मुझे रोको न, गाने दो इक पल
तेरे सितार भी जो उँगलियों से छेड़ दें
गीत लिखूँ या कि कोई कविता सुनहरी।
छाँव तो धूप की छाया है प्रियतम
धूप संग पड़ते हैं छाँव के भी क़दम।
धूप को जो ओढ़ लो तो छाँव बिछ जाती
आँचल-सी फिरती है ज्यों फहरी-फहरी।
लहराती नदियों-सी होकर भी गहरी।
बातें तुम्हारी प्रिये क्यों ठहरी-ठहरी।
(1 मार्च, 2006)
लेखक की साइट का पता: www.abhiranjankumar.com
8 comments:
स्वागत है अभिरंजन भाई, ब्लाग जगत मे इतनी सुंदर रचना के साथ.
समीर लाल
अपने ब्लाग को यूनिकोडित करने का आपका निर्णय अत्यन्त सामयिक है; बहुत उपयोगी होगा।
'बातें तुम्हारी प्रिये क्यूं ठहरी ठहरी'ये लाइन बहुत अच्छी लगी । एकदम दिल से लिखा है इसीलिए इस कविता ने दिल को छू लिया है ....
hi, Abhi kya likhte ho.Harek kavita per dilo jaan bicha dete ho.I am Parmod, how are you .
Hi sir.
Ye Dil ko chune wali Kavita.Dil ki Dhadkane badha jati hai.
Dhanyabad hai aplko jo itni Madhur rachnaye hame padhne ko milti hai.
http://gopalji1954.blogspot.com
आपकी यह पोस्ट आज के (१३ अगस्त, २०१३) ब्लॉग बुलेटिन - प्रियेसी पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई
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