Wednesday, February 17, 2016

अपनी विचारधारा के बारे में दो टूक

मैं जब सड़क पर पैदल चलता हूं या साइकिल चलाता हूं, तो बाएं चलता हूं, ताकि आती-जाती गाड़ियों से अपनी रक्षा कर सकूं। जब कार चलाता हूं, तो दाएं चलता हूं, ताकि आते-जाते पैदल या साइकिल यात्रियों को मेरी वजह से परेशानी न हो। जहां कहीं दाएं या बाएं मोड़ हो और मुझे सीधा जाना हो, तो गाड़ी बीच की लेन पर ले आता हूं।

जीवन भी इसी तरह चलता है। जड़ता और हठधर्मिता से काम नहीं चलता। विचारों को लेकर कट्टरता महामूर्ख लोग रखते हैं। कोई भी विचार संपूर्ण नहीं होता। ग़रीब-गुरबों-मज़दूरों-किसानों के सवालों पर शायद मैं वामपंथ के करीब हूं। देश, माटी, भाषा, संस्कृति के सवालों पर शायद मैं दक्षिणपंथ के करीब हूं। सभी जाति, संप्रदाय, क्षेत्र, भाषा, विचारों के लोगों को साथ लेकर चलना है, इसलिए मध्यमार्गी हूं, सहिष्णु हूं।


अगर मैं सिर्फ़ वामपंथ या दक्षिणपंथ को मानता, तो जड़ होता, कट्टर होता, हठधर्मी होता, पढ़ा-लिखा मूर्ख होता, हिंसक होता, असहिष्णु होता, वैचारिक छुआछूत रखता, सामने वाले को बर्दाश्त कर पाने का साहस नहीं रखता। अगर मैं सिर्फ़ कांग्रेसी होता, तो धूर्त होता, शातिर होता, ढुलमुल होता, भ्रष्ट होता, चापलूसी-पसंद होता, हर वक्त साज़िशें रचता और अपने फ़ायदे के लिए हर विचार और सरोकार का सत्यानाश करने पर आमादा रहता।


मैं लकीर का फकीर नहीं हूं। मैं किसी एक ग्रंथ को धर्म नहीं मान सकता। मैं किसी एक किताब से अपना सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक व्यवहार तय नहीं कर सकता। मैं किसी एक नेता को अपना ख़ुदा या किसी एक ख़ुदा को अपना नेता नहीं मान सकता। मैं किसी एक विचार के शिकंजे में जकड़कर अन्य विचारो से नफ़रत नहीं कर सकता। दुनिया सिर्फ़ मेरी नहीं है। मैं अकेला इस दुनिया का नहीं हूं। मैं सबके साथ रहना चाहता हूं। मैं सबको साथ रखना चाहता हूं।


मैं विचारों को व्यक्तिगत संबंधों के बीच में कभी नहीं आने देता। जो मुझसे सहमत हैं, उनका भी स्वागत है। जो मुझसे असहमत हैं, उनका और भी स्वागत है। मेरे साथ चाय पीते हुए आप मुझसे बिल्कुल उलट विचार रख सकते हैं और मैं इसे अत्यंत सहजता से लेता हूं। मेरे फोरम पर आकर आप मेरी पूरी आलोचना कर सकते हैं और कभी मुझे अपनी मर्यादा और संयम खोते हुए नहीं पाएंगे आप। मैं ऐसा इसलिए हूं क्योंकि मैं शायद भारतीय होने के गूढ़ अर्थ, विनम्रता भरी गरिमा और महती ज़िम्मेदारी को समझता हूं।


मैं अपनी बात को मज़बूती और बेबाकी से रखना चाहता हूं। जीवन एक ही बार मिला है, इसलिए मैं डिप्लोमैटिक होकर वह लिखने-बोलने से बचने की मूर्खता नहीं कर सकता, जो मैं महसूस करता हूं। मैं ग़रीबी, भुखमरी, अन्याय, शोषण, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ एक निर्णायक लड़ाई चाहता हूं। मैं जातिवाद, सांप्रदायिकता और क्षेत्रवाद के ख़िलाफ़ भी एक निर्णायक लड़ाई चाहता हूं। मैं देश की एकता और अखंडता के सवाल पर समझौता नहीं कर सकता। वसुधैव कुटुम्बकम यानी पूरी धरती हमारी है, लेकिन व्यवस्था बनाए रखने के लिए देश मानव-हित में हैं।


मेरे जो भी विचार हैं, मेरे अपने हैं। मेरे जो भी विचार हैं, मैं उनपर पक्का हूं। मैं अपने विचारों में कभी किसी पल भी ढुलमुल नहीं हूं। मैं अपनी आलोचनाओं से कभी विचलित नहीं होता हूं। जब मैंने साहित्य, मीडिया और सामाजिक जीवन में आने का निर्णय किया, तभी मैंने यह तय कर लिया कि मैं अपने हिसाब से चलूंगा। किसी से डिक्टेट होकर चलना मेरी फितरत में नहीं है। किसी का यसमैन आज तक नहीं बना, तो अब क्या बनूंगा!
मैं लोकतंत्र में समस्त राजनीतिक दलों को एक पक्ष और जनता को दूसरा पक्ष मानता हूं। इसलिए मैं कभी निष्पक्ष नहीं हो सकता। मैं हमेशा जनता के पक्ष में खड़ा रहता हूं और रहूंगा। इसलिए मैं जन-पक्षधर हूं, निष्पक्ष नहीं हूं।


जब सिर्फ़ अलग-अलग राजनीतिक दलों को संदर्भ में रखेंगे, तो यह संभव है कि आपको ऐसा लगे कि मैं किसी विशेष के पक्ष में झुका हुआ हूं। लेकिन यह देश और जनता के हितों की मेरी निजी समझ के मुताबिक, विशुद्ध रूप से मुद्दों के आधार पर होता है, न कि उस दल विशेष के लिए मेरे किसी स्थायी झुकाव की वजह से। अगर कभी मुद्दों के आधार पर मेरा ऐसा झुकाव बनता भी है, तो वहां प्रतिकूल सोच रखने वालों के लिए पूरा स्पेस छोड़ता हूं।


बाबा रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा है- "यदि तुम्हारी आवाज़ सुनकर कोई न आए
, तब अकेले चलो।" मैं अकेला चल रहा हूं। जो साथ हैं, उनका स्वागत। जो साथ नहीं हैं, उनका भी पूरा-पूरा सम्मान। सबसे मोहब्बत है। गिला किसी से नहीं। इंसानियत मेरा धर्म। भारतीय मेरी जाति। जय हिन्द।

(18 फरवरी 2016)

Tuesday, December 08, 2009

ऐसे आयोग, ऐसी पार्टियाँ और ऐसी सरकारें लोकतंत्र के लिए घातक हैं

हंगामे के समय सबसे सुचारू रूप से चलती है हमारी संसद!

दोस्तो, यह पोस्ट मैंने लोकसभा टीवी को लाइव देखते हुए लिखी है। उस वक़्त जब लोकसभा में लिबरहान कमीशन की रिपोर्ट पर नियम 193 के तहत चली बहस के बाद गृह मंत्री पी चिदंबरम सरकार की तरफ़ से जवाब दे रहे थे। क्या विडंबना है कि आम परिस्थितियों में संसद में शायद ही कोई नेता अपना भाषण बिना टोका-टोकी के पूरा कर पाता हो, लेकिन जब बीजेपी के सांसद नारेबाज़ी कर रहे थे, माननीय गृह मंत्री को मौका मिल गया कि वो बिना टोका-टोकी के अपना बयान पढ़ डालें। वो एक सांस में अपना बयान पढ़ते जा रहे थे और बीजेपी के सांसद नारेबाज़ी किए जा रहे थे। इससे पता चलता है कि देश के महत्वपूर्ण मसलों पर हमारे राजनीतिक दलों, सरकार और संसद का रवैया कैसा है। बीजेपी के सांसद इस बात से नाराज़ थे कि कांग्रेस सांसद और पूर्व समाजवादी बेनीप्रसाद वर्मा ने अपने भाषण में अटल बिहारी वाजपेयी के ख़िलाफ़ "नीच" जैसे असंसदीय शब्द का इस्तेमाल किया। ये अलग बात है कि बेनी प्रसाद का पूरा भाषण ही मुझे असंसदीय लगा। उन्होंने अपने भाषण में न सिर्फ़ "नीच" शब्द का इस्तेमाल किया, बल्कि आडवाणी को "डूब मरने" के लिए भी कहा, क्योंकि वो पाकिस्तान से आए हैं। उन्होंने कहा कि ख़ुद अपना जन्मस्थान छोड़कर भाग गए आडवाणी राम के जन्मस्थान की लड़ाई लड़ रहे हैं। बीजेपी सांसदों की मांग थी कि बेनी प्रसाद माफ़ी मांगे। गृह मंत्री चिदंबरम ने तो इसपर सरकार की तरफ़ से माफ़ी मांग ली, लेकिन तमाम दबावों के बावजूद बेनीप्रसाद सिर्फ़ खेद जताकर रह गए, माफ़ी नहीं मांगी।

लोकतंत्र का सरासर उड़ाया जा रहा है मज़ाक

ये पूरी तस्वीर हमें सोचने को विवश करती है। हमारी संसद में इस तरह के नेता हैं जिनपर हमें शर्म आती है। एक तरफ़ बेनी प्रसाद जैसे नेता हैं जिन्हें बोलने का शऊर नहीं है। ऐसे नेताओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की बजाय हमारी संसद असहाय दिखती है। दूसरी तरफ़ हमारा विपक्ष है जो सरकार का जवाब सुनने को तैयार नहीं है। अपना विरोध वो दूसरे तरीकों से भी जता सकता था, लेकिन शायद उसकी दिलचस्पी सरकार का जवाब सुनने में है ही नहीं, क्योंकि लिबरहान कमीशन की रिपोर्ट ने आपस में ही लड़-मर रही बीजेपी के लिए संजीवनी बूटी का काम किया है। तीसरी तरफ़ हमारी सरकारें हैं, ख़ुद जिनके लिए भी अयोध्या जैसे संवेदनशील मामले राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए गरम तवे से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। लिबरहान कमीशन जैसे तमाम कमीशन उसके लिए चिमटे का काम करते हैं जिनके जरिए वो ये रोटियाँ सेंकती चली आ रही है।

ज़रा सोचिए, हम ऐसे कमीशनों का क्या करें, जिनके नतीजों से दोषियों को सज़ा तो नहीं मिलती है, उल्टे उन्हें राजनीति करने का मौका मिलता है। सत्रह साल में हज़ार पेज की रद्दी तैयार करने में इस कमीशन ने आठ करोड़ रूपये फूंक डाले, लेकिन हम किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सके। कोढ़ में खाज ये कि सचमुच इस रिपोर्ट में तथ्य की तमाम ग़लतियाँ हैं, जिन्हें ख़ुद सरकार में बैठे लोग भी कबूल कर रहे हैं। और तो और कई सांसदों को तो यहाँ तक बोलने का मौका मिल गया कि अब तो सरकार इस रिपोर्ट को ख़ारिज कर ये जाँच करवाए कि जिस रिपोर्ट को तैयार करने में जस्टिस लिबरहान ने सत्रह साल लगा दिए, उन्होंने ख़ुद उस रिपोर्ट को पढ़ा भी है कि नहीं। इससे ज़्यादा शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता। ऐसे आयोगों की रिपोर्टों पर इससे ज़्यादा कुछ कहने को भी नहीं बचता।

बीजेपी आक्रामक, कांग्रेस ढुलमुल

नतीजा सामने है कि बीजेपी एक बार फिर आक्रामक है। बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कल संसद में साफ़ कहा कि अयोध्या में राम मंदिर था, राम मंदिर है और राम मंदिर रहेगा। आज सुषमा स्वराज ने भी सीना ठोंककर कहा कि जो लिबरहान ने नहीं बताया- हमसे पूछ लो। हम बताते हैं। अगर ये पूछोगे कि अयोध्या में ढांचा ढहा, तो मैं कहूँगी कि हाँ ढहा। अगर ये पूछोगे कि क्या इसके ढहने के पीछे साज़िश थी, तो मैं कहूँगी साज़िश नहीं थी, ये जनांदोलन का परिणाम था। और अगर ये पूछोगे कि क्या आप सज़ा भुगतने को तैयार हैं तो हाँ हम तैयार हैं। जो 6 दिसंबर 1992 को घटनास्थल पर थे, वो नेता भी और जो नहीं थे, वो नेता भी। जो नेता सदन के अंदर हैं वो भी और जो सदन के बाहर हैं, वो भी। दूसरी तरफ़, कांग्रेस एक बार फिर ढुलमुल दिखाई दे रही है। उससे और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। जिसने पचास साल सत्ता में रहते हुए इस मामले को दिन-दिन सुलगने दिया, जिसने मंदिर का ताला खुलवाया, जिसने राम जन्मभूमि परिसर में मंदिर का शिलान्यास कराया, और दूसरी किसी भी पार्टी से ज़्यादा शातिराना अंदाज़ में पिछले साठ साल से हिन्दू और मुसलमान वोटों की राजनीति करती आ रही है। ये अलग बात है कि फिर भी उसके माथे पर धर्मनिरपेक्षता का ठप्पा लगा हुआ है।

मैं ऐसे तमाम कमीशनों, ऐसी सरकारों और ऐसी तमाम राजनीतिक पार्टियों की तीखी भर्त्सना करता हूँ जो हमारे लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करने में जुटी हैं।



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Friday, November 06, 2009

हिन्दी तो हिन्दी, अब भोजपुरी का भी जलवा


हिन्दी यूँ तो आबादी के हिसाब से चीनी भाषा के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी भाषा है, लेकिन इसे एक पिछड़े और बहुभाषी-बहुधर्मी देश की भाषा होने का खामियाजा हमेशा से भुगतना पड़ा है। लेकिन अब स्थितियाँ बदल रही हैं। जैसे-जैसे हिन्दी पट्टी में शिक्षा का प्रसार हो रहा है और लोगों की आर्थिक स्थिति सुधर रही है, वह बाज़ार की नज़र में चढ़ती जा रही है। पिछले एक-दो दशक तक बाज़ार से दूर-दूर रहने वाली हिन्दी अब बाज़ार का इस्तेमाल कर आगे बढ़ना सीख रही है। अब हिन्दी तो हिन्दी, उसकी बोलियाँ भी, ख़ासकर भोजपुरी तो बाज़ार को ख़ासा लुभा रही है। आज भोजपुरी में कई टीवी चैनल खुल गए हैं और ये सब के सब ज़बर्दस्त कारोबार कर रहे हैं। इस वक़्त जब मैं ये लघु-टिप्पणी लिख रहा हू, तब मैं लोकप्रिय भोजपुरी चैनल "महुआ" देख रहा हूँ। इस वक़्त इसपर "सुर-संग्राम" कार्यक्रम के फाइनल का सीधा प्रसारण चल रहा है, पटना के गांधी मैदान से।

कार्यक्रम में लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और कृपाशंकर सिंह भी दर्शक दीर्घा में बैठे दिखाई दे रहे हैं, जबकि मनोज तिवारी और रवि किशन ने मंच संभाल रखा है। बिहार और उत्तर प्रदेश में जन-जन के दिलो-दिमाग पर राज करने वाली बेमिसाल लोक-गायिका शारदा सिन्हा की मौजूदगी कार्यक्रम को अतिरिक्त गरिमा प्रदान कर रही है। इस कार्यक्रम को देखने के लिए लाखों की संख्या में लोग पटना के गांधी मैदान में जमा हुए हैं। और मैं यकीनन कह सकता हूँ कि इस ऐतिहासिक मैदान में मौजूद उन लाखों लोगों के अलावा करोड़ों लोग इस वक़्त टीवी पर ये कार्यक्रम देख रहे होंगे।

हिन्दी और हिन्दी की बोलियों में यह आत्मविश्वास पहली बार इतना मज़बूत दिखाई देता है। निश्चित रूप से हिन्दी की सबसे बड़ी ताकत उसे बोलने वाले लोगों की आबादी ही है, जो अब पूरी दुनिया में फैल चुकी हैं और अपनी योग्यता का लोहा मनवा रही है। हालांकि अभी भी हिन्दी और उसकी बोलियों को ये साबित करना है कि वह सिर्फ़ लोक-मनोरंजन की भाषा ही नहीं है और उसे सिर्फ़ कमज़ोर तबकों और निम्न मध्यम वर्ग के लोग ही नहीं बोलते। इसके लिए हिन्दी में चौतरफा काम की ज़रूरत है- साहित्य के अलावा ज्ञान-विज्ञान की तमाम विधाओं में। साथ ही अपनी भाषा के प्रति हीन भावना अब हमें छोड़ देनी चाहिए, क्योंकि अब आप ये आरोप भी नहीं लगा सकते कि हिन्दी लोगों को रोज़गार नहीं दिला सकती। अब तो भारत ही नहीं, दुनिया के दूसरे देशों में भी हिन्दी बड़ी संख्या में लोगों को रोज़गार दिला रही है। अच्छी बात ये भी है कि इंटरनेट पर हिन्दी बोलने वाले लोगों की आवाजाही भी तेज़ी से बढ़ रही है, हालाँकि हिन्दी पट्टी में फैली गरीबी और बुनियादी सुविधाओं की कमी इसे अब भी दुनिया के सामने आने से रोक रही है। लेकिन हमें उम्मीद नहीं छोड़नी है और पूरे जी-जान से हिन्दी के लिए लगातार काम करते रहना है।

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प्रभाष जी को श्रद्धांजलि!


हिन्दी पत्रकारिता के युगपुरुष प्रभाष जोशी हम सबको अनाथ करके चले गए हैं। इस वक्त उनसे बड़ी कोई हस्ती हमारी दुनिया में नहीं था और उनका अचानक इस तरह हमें छोड़कर चला जाना इसलिए भी एक बहुत बड़े झटके जैसा है, क्योंकि चाहे वो प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया- ये दोनों इस वक़्त पूरी तरह बाज़ार के हाथों में खेल रहे हैं और जैसे उन्होंने अपने सारे सरोकार, सारी नैतिकताओं को ताक पर रख दिया है। हम जैसे पत्रकारों के लिए इस निराशाजनक परिदृश्य में प्रभाष जी की आवाज़ एक रोशनी का काम करती थी।अभी पिछले लोकसभा चुनाव में जब हिन्दी के ज़्यादातर बड़े अखबार ख़बरों की सौदेबाज़ी पर उतर आए, तो प्रभाष जी ने मुखर होकर उनका विरोध किया। अब विरोध की वह आवाज़, जो हमें पथभ्रष्ट होने से बचाने की चेष्टा कर रही थी, गुम हो गई है। किसी बड़ी हस्ती के जाने पर हमेशा उसे अपूरणीय क्षति बताने की औपचारिकता की जाती रही है, लेकिन प्रभाष जी के निधन से सचमुच एक शू्न्य-सा आ गया है। इंस्टैंट पब्लिसिटी के इस ज़माने में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इस वक़्त भी कई सारे बड़े नाम तैयार हो गए हैं, लेकिन प्रभाष जी वाली ईमानदारी, दृढ़ता और पत्रकारिता के सरोकारों के लिए अडिग रहने की प्रवृत्ति किसी और में नहीं दिखाई देती। क्रिकेट प्रभाष जी का सबसे बड़ा जुनून था। क्रिकेट पर उनकी कई रपटें, आलेख और विश्लेषण तो हमें नियमित रूप से पढ़ने को मिलते रहते थे, लेकिन किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि यही क्रिकेट एक दिन उनकी साँसें छीन लेगा। भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच पांचवें वनडे में सचिन का आउट होना और भारत की हार वो झेल नहीं पाए और अपनी आखिरी साँस भी क्रिकेट के नाम कर गए। उन्हें मेरी श्रद्धांजलि!

Monday, November 02, 2009

तथाकथित धर्मनिरपेक्षों, बुद्धिजीवियों और सामाजिकों का कच्चा चिट्ठा

सिख दंगों के 25 साल हो गए, करीब तीन हज़ार निर्दोष लोग बेदर्दी से क़त्ल कर दिए गए, लेकिन इंसाफ़ किस चिड़िया का नाम है, क्या आपको मालूम है? अफ़सोस की बात ये है कि धर्म के नाम पर देश के इतिहास का ये सबसे बड़ा क़त्लेआम उन लोगों ने किया, जो माथे पर धर्मनिरपेक्षता की पट्टी चिपकाकर घूम रहे हैं। मैं देश और दुनिया के किसी भी हिस्से में किसी भी मकसद के लिए हुई ऐसी हिंसा की घोर भर्त्सना करता हूँ, जिसमें बेगुनाहों की जान जाती हो। मेरी नज़र में हर इंसानी जान की कीमत बराबर है, चाहे वो हिन्दू की जान हो, या मुसलमान की, या सिख या ईसाई की, लेकिन क्या हमारे देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल और लोग ऐसा मानते हैं? अगर मानते होते तो फिर क्या बात थी कि गुजरात दंगे पर इंसानियत के पुतले बने ये लोग 1984 के सिख दंगों की चर्चा तक नहीं करना चाहते। कहाँ है इंसाफ आज 25 साल बाद? माफ़ करें, आप मुझे जो भी समझें, मेरी नज़र में इस देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष और तथाकथित सांप्रदायिक दल- सब एक जैसे हैं, उनमें कोई फर्क नहीं है। मेरी यही पीड़ा मेरी कविता "बुद्धिजीवी की दुकान" में व्यक्त हुई है। यह कविता 2003 में लिखी गई और 2006 में प्रकाशित मेरे दूसरे काव्य-संग्रह "उखड़े हुए पौधे का बयान" में संकलित है। कृपया आप भी इसे देखें-

बुद्धिजीवी की दुकान

"मैं गुजरात में 1,000 मुसलमानों के क़ातिलों को साम्प्रदायिक कहूँ / और दिल्ली में 3,000 सिखों के हत्यारों को धर्मनिरपेक्ष तो चौंकना मत/ क्रिया के बाद प्रतिक्रिया सिद्धांत देने वाले मुख्यमंत्री को दंगाई कहूँ/ और बड़ा पेड़ गिरने के बाद धरती हिलने का सिद्धांत देने वाले / प्रधानमंत्री को मिस्टर क्लीन / तो भी कर लेना यक़ीन।

जिन्होंने पचास साल में एक भी दंगापीड़ित को न्याय नहीं दिलाया/ जिन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के इंसाफ़ को दिखा दिया ठेंगा- / उनकी आरती उतारूँगा मैं / और अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के लिए / गिनूँगा सिर्फ़ दूसरे पक्ष के कुकर्म/ मेरी नज़र में मस्जिद ढहाने वाले तो साम्प्रदायिक हैं / लेकिन राजनीतिक फ़ायदे के लिए / मंदिर का ताला खुलवाने वाले दूध के धुले

मैं भूल जाता हूँ कि अंग्रेजों की फूट डालो और शासन करो की नीति / इस देश के सभी सत्तालोलुपों में एक-सी लोकप्रिय है / और सबने सेंकी हैं जलती चिताओं पर स्वार्थ की रोटियाँ / उत्तर से दक्षिण तक, पूरब से पश्चिम तक / जो शातिर हैं, वो जा कर उन चिताओं पर बहा आते हैं आँसू / जो दुस्साहसी, वो दूर से करते हैं अट्टहास / पर सत्ता दोनों को चाहिए अपने पास।

जानता हूँ कि मेरी कानी सोच से कभी ख़त्म नहीं होगी साम्प्रदायिकता / फिर भी दो साम्प्रदायिकों की लड़ाई में मुझे एक को धर्मनिरपेक्ष कहना है / आख़िर मुझे भी इस बाज़ार में रहना है ! "

पूरी कविता पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

लेखक की साइट का होम पेज- http://www.abhiranjankumar.com

Saturday, October 31, 2009

हमारे समय के प्रगतिशील लोग (कविता)

"हमारे समय के प्रगतिशील लोगों के लिए / स्त्री के बारे में सोचना माने सेक्स के बारे में सोचना / लोगों के जीने-खाने की आज़ादी से ज़्यादा फ़िक्र / उन्हें उनकी सोने की आज़ादी को लेकर है / दुनिया की सबसे प्रगतिशील स्त्री वो है / जो बाहर अपने पति और परिवार के ख़िलाफ़ बोलती हुई / उनके साथ भीतर चली आए।"

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"हमारे समय के प्रगतिशील लोग चाहते हैं कि सेक्स एजुकेशन बचपन से मिले / ताकि जब आठवीं क्लास के बच्चे एमएमएस बनाएँ / तो कॉन्डोम का इस्तेमाल करना ना भूलें / हमारे समय के प्रगतिशील लोग चाहते हैं कि / एक दिन कॉन्डोम इतना पॉपुलर हो जाए कि / बच्चे कॉन्डोम को गुब्बारों की तरह उड़ाएँ / और माँ-बाप इस महंगाई के ज़माने में गुब्बारों का पैसा बचा लें।"

X X X

"हमारे समय के प्रगतिशील लोग / पुरबा हैं कि पछुआ हैं / खरगोश हैं कि कछुआ हैं / पता ही नहीं चलता। हमारे समय के प्रगतिशील लोग / मोटे हैं कि महीन हैं / अमेरिका हैं कि चीन हैं / पता ही नहीं चलता।"

( इस कविता को पूरा पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें )

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Sunday, March 05, 2006

बातें तुम्हारी प्रिये क्यों ठहरी-ठहरी (प्रेम कविता)

लहराती नदियों-सी होकर भी गहरी।
बातें तुम्हारी प्रिये क्यों ठहरी-ठहरी।

मैं तो एक झरना हूँ, थम जाऊँ कैसे?
छाती पे पत्थर की जम जाऊँ कैसे?
मीन-सी तड़प रही है मेरी प्रतीक्षा में
देखो तुम्हारी प्रिये एक-एक लहरी।

मैं तो एक बादल हूँ, बाँहों में भर लो।
काजल समान प्रिये आँखों में धर लो।
ख़त्म नहीं होऊँगा किंतु तेरे अंबर से
बार-बार बरसूँगा संझा-दुपहरी।

मन पे उदासी न छाने दो इक पल
आज मुझे रोको न, गाने दो इक पल
तेरे सितार भी जो उँगलियों से छेड़ दें
गीत लिखूँ या कि कोई कविता सुनहरी।

छाँव तो धूप की छाया है प्रियतम
धूप संग पड़ते हैं छाँव के भी क़दम।
धूप को जो ओढ़ लो तो छाँव बिछ जाती
आँचल-सी फिरती है ज्यों फहरी-फहरी।

लहराती नदियों-सी होकर भी गहरी।
बातें तुम्हारी प्रिये क्यों ठहरी-ठहरी।

(1 मार्च, 2006)

लेखक की साइट का पता: www.abhiranjankumar.com