Wednesday, February 17, 2016

अपनी विचारधारा के बारे में दो टूक

मैं जब सड़क पर पैदल चलता हूं या साइकिल चलाता हूं, तो बाएं चलता हूं, ताकि आती-जाती गाड़ियों से अपनी रक्षा कर सकूं। जब कार चलाता हूं, तो दाएं चलता हूं, ताकि आते-जाते पैदल या साइकिल यात्रियों को मेरी वजह से परेशानी न हो। जहां कहीं दाएं या बाएं मोड़ हो और मुझे सीधा जाना हो, तो गाड़ी बीच की लेन पर ले आता हूं।

जीवन भी इसी तरह चलता है। जड़ता और हठधर्मिता से काम नहीं चलता। विचारों को लेकर कट्टरता महामूर्ख लोग रखते हैं। कोई भी विचार संपूर्ण नहीं होता। ग़रीब-गुरबों-मज़दूरों-किसानों के सवालों पर शायद मैं वामपंथ के करीब हूं। देश, माटी, भाषा, संस्कृति के सवालों पर शायद मैं दक्षिणपंथ के करीब हूं। सभी जाति, संप्रदाय, क्षेत्र, भाषा, विचारों के लोगों को साथ लेकर चलना है, इसलिए मध्यमार्गी हूं, सहिष्णु हूं।


अगर मैं सिर्फ़ वामपंथ या दक्षिणपंथ को मानता, तो जड़ होता, कट्टर होता, हठधर्मी होता, पढ़ा-लिखा मूर्ख होता, हिंसक होता, असहिष्णु होता, वैचारिक छुआछूत रखता, सामने वाले को बर्दाश्त कर पाने का साहस नहीं रखता। अगर मैं सिर्फ़ कांग्रेसी होता, तो धूर्त होता, शातिर होता, ढुलमुल होता, भ्रष्ट होता, चापलूसी-पसंद होता, हर वक्त साज़िशें रचता और अपने फ़ायदे के लिए हर विचार और सरोकार का सत्यानाश करने पर आमादा रहता।


मैं लकीर का फकीर नहीं हूं। मैं किसी एक ग्रंथ को धर्म नहीं मान सकता। मैं किसी एक किताब से अपना सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक व्यवहार तय नहीं कर सकता। मैं किसी एक नेता को अपना ख़ुदा या किसी एक ख़ुदा को अपना नेता नहीं मान सकता। मैं किसी एक विचार के शिकंजे में जकड़कर अन्य विचारो से नफ़रत नहीं कर सकता। दुनिया सिर्फ़ मेरी नहीं है। मैं अकेला इस दुनिया का नहीं हूं। मैं सबके साथ रहना चाहता हूं। मैं सबको साथ रखना चाहता हूं।


मैं विचारों को व्यक्तिगत संबंधों के बीच में कभी नहीं आने देता। जो मुझसे सहमत हैं, उनका भी स्वागत है। जो मुझसे असहमत हैं, उनका और भी स्वागत है। मेरे साथ चाय पीते हुए आप मुझसे बिल्कुल उलट विचार रख सकते हैं और मैं इसे अत्यंत सहजता से लेता हूं। मेरे फोरम पर आकर आप मेरी पूरी आलोचना कर सकते हैं और कभी मुझे अपनी मर्यादा और संयम खोते हुए नहीं पाएंगे आप। मैं ऐसा इसलिए हूं क्योंकि मैं शायद भारतीय होने के गूढ़ अर्थ, विनम्रता भरी गरिमा और महती ज़िम्मेदारी को समझता हूं।


मैं अपनी बात को मज़बूती और बेबाकी से रखना चाहता हूं। जीवन एक ही बार मिला है, इसलिए मैं डिप्लोमैटिक होकर वह लिखने-बोलने से बचने की मूर्खता नहीं कर सकता, जो मैं महसूस करता हूं। मैं ग़रीबी, भुखमरी, अन्याय, शोषण, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ एक निर्णायक लड़ाई चाहता हूं। मैं जातिवाद, सांप्रदायिकता और क्षेत्रवाद के ख़िलाफ़ भी एक निर्णायक लड़ाई चाहता हूं। मैं देश की एकता और अखंडता के सवाल पर समझौता नहीं कर सकता। वसुधैव कुटुम्बकम यानी पूरी धरती हमारी है, लेकिन व्यवस्था बनाए रखने के लिए देश मानव-हित में हैं।


मेरे जो भी विचार हैं, मेरे अपने हैं। मेरे जो भी विचार हैं, मैं उनपर पक्का हूं। मैं अपने विचारों में कभी किसी पल भी ढुलमुल नहीं हूं। मैं अपनी आलोचनाओं से कभी विचलित नहीं होता हूं। जब मैंने साहित्य, मीडिया और सामाजिक जीवन में आने का निर्णय किया, तभी मैंने यह तय कर लिया कि मैं अपने हिसाब से चलूंगा। किसी से डिक्टेट होकर चलना मेरी फितरत में नहीं है। किसी का यसमैन आज तक नहीं बना, तो अब क्या बनूंगा!
मैं लोकतंत्र में समस्त राजनीतिक दलों को एक पक्ष और जनता को दूसरा पक्ष मानता हूं। इसलिए मैं कभी निष्पक्ष नहीं हो सकता। मैं हमेशा जनता के पक्ष में खड़ा रहता हूं और रहूंगा। इसलिए मैं जन-पक्षधर हूं, निष्पक्ष नहीं हूं।


जब सिर्फ़ अलग-अलग राजनीतिक दलों को संदर्भ में रखेंगे, तो यह संभव है कि आपको ऐसा लगे कि मैं किसी विशेष के पक्ष में झुका हुआ हूं। लेकिन यह देश और जनता के हितों की मेरी निजी समझ के मुताबिक, विशुद्ध रूप से मुद्दों के आधार पर होता है, न कि उस दल विशेष के लिए मेरे किसी स्थायी झुकाव की वजह से। अगर कभी मुद्दों के आधार पर मेरा ऐसा झुकाव बनता भी है, तो वहां प्रतिकूल सोच रखने वालों के लिए पूरा स्पेस छोड़ता हूं।


बाबा रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा है- "यदि तुम्हारी आवाज़ सुनकर कोई न आए
, तब अकेले चलो।" मैं अकेला चल रहा हूं। जो साथ हैं, उनका स्वागत। जो साथ नहीं हैं, उनका भी पूरा-पूरा सम्मान। सबसे मोहब्बत है। गिला किसी से नहीं। इंसानियत मेरा धर्म। भारतीय मेरी जाति। जय हिन्द।

(18 फरवरी 2016)

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